“रोला फुआ” – कृष्णा भास्कर द्वारा एक प्यारी, नर्म-मिज़ाज कहानी उस पारिवारिक दंतकथा जैसी फुआ की—छोटे कद की, मगर आत्मा से ज़बरदस्त, और थ्री-टेक्स की रानी। दोहराए जाने वाले वाक्य, तोते की सोने की आदतें, और पटना के सपनों के बीच, ये कहानी बचपन, हँसी और प्यार को पुराने ज़माने के अंदाज़ में लपेटकर आपके सामने रखती है|

“फुआ” का मतलब होता था पापा की बहन या पापा की कजिन। लेकिन रोला फुआ आम फुआ नहीं थीं। वो तो कुछ खास ही थीं।

अब रोला फुआ मेरी फुआ नहीं थीं। वो तो मेरे नाना जी की फुआ थीं। मतलब मेरी माँ के नाना की बहन। तो नाना जी उन्हें रोला फुआ कहते, माँ भी रोला फुआ कहतीं, मैं भी रोला फुआ ही कहता, और बाक़ी सब भी। हिंदी में ग्रेट-ग्रैंड जैसे रिश्तों के लिए कोई ठोस शब्द नहीं थे, तो जो बड़े बोले, वही सबने पकड़ लिया।

रोला फुआ की एक बात तो पूरे खानदान को पता थी—वो हर बात तीन बार कहती थीं। जैसे, “ई साल मटर के चोखा ना खाइली हे, ई साल मटर के चोखा ना खाइली हे, ई साल मटर के चोखा ना खाइली हे।”

मेरी यादों में, वो एक छोटी-सी, सिकुड़ी-सिकुड़ी बुज़ुर्ग थीं—जैसे पैर की बिचली अंगुली में पहना जाने वाला बिछिया। उनका जन्म 1900 के आस-पास हुआ होगा—1910 या 1915। उस ज़माने में जन्मदिन मनाना या याद रखना कोई परंपरा नहीं थी। कैलेंडर ही कहाँ थे?

लोग अपनी पैदाइश किसी बड़ी आफ़त से जोड़कर बताते थे—“मैं तो बड़े बाढ़ वाले साल में पैदा हुआ।” कोई कहता, “मैं उस साल पैदा हुआ जब मंदिर की घंटी रात भर भूकंप में हिलती रही।” और तभी कोई चुटकुलेबाज़ बोल उठता—“भगवान तेरे जन्म का अलार्म बजा रहा था रे घंटी से।” और जिस पर मज़ाक बना, वो फिर बस मुस्कुरा के रह जाता।

पर रोला फुआ के जन्म के साथ कौन-सी आफ़त जुड़ी थी, ये किसी को नहीं पता।

वो तो दिन भर बोलती रहतीं—तीन बार। जैसे ही मौका मिले, घर से निकल जातीं, मोहल्ले में गपशप, चार-चार चाय, थोड़ी मुरमुरे, फिर खाने के टाइम घर वापसी। उस ज़माने में मुख्य खाना किसी और के घर खाना अच्छा नहीं माना जाता था।

माँ कहती हैं, रोला फुआ उस समय की फैशन क्वीन थीं। उनका पूरा ध्यान था—कपड़ों, ज़ेवरों और मेकअप पर। बुढ़ापे में भी मखमली ब्लाउज पर कांच की कढ़ाई। और वो भी सोने के गहनों से लदी हुईं।

ये सब लक से नहीं मिला था। उन्होंने माँगा और पाया। उनके पापा एक समृद्ध किसान थे—बड़ा घर, नौकर-चाकर, ढेर सारी गायें, और अनाज का भंडार।

एक बार तय हुआ—घोड़ा बदलना है। बारिश के वक्त नदियाँ फूल जाती थीं और घोड़े पानी में काँपने लगते। हाथी नहीं काँपते। तो तय हुआ—अब हाथी ही लाना है। और फिर आया सोनपुर मेला।

सोनपुर मेला तो सदियों से एशिया का सबसे बड़ा पशु मेला है—तोते से हाथी, गिलहरी से भालू, कपड़े से गहने, सब बिकता है। और हाँ, कई लोगों को वहाँ जीवनसाथी भी मिल जाते थे। गाँव के ज्ञानी और पंडित पेड़ के नीचे बैठकर रिश्ते जोड़ते थे। वहीं सगाई, शादी—और चलती थी उम्र भर। आज की तरह नहीं कि हर चीज़ की रिसर्च हो और फिर भी तलाक हो जाए।

बेटियाँ हमेशा जानती हैं कि पापा का दिल कैसे पिघलता है। वो शायद दस साल की रही होंगी। बस सुनते ही कि पापा मेले जा रहे हैं, वो पीछे-पीछे चल पड़तीं, पलकें झपकाते हुए—“पापा, हमको भी ले चलिए। पापा, हमको भी ले चलिए। पापा, हमको भी ले चलिए।” और पापा का दिल पिघल जाता।

गाँव से राजधानी पटना तक, फिर गंगा पार—एक छोटी-सी नाव, जिसे वो “स्टीमर” कहते थे। शायद भाप से चलती थी?

पटना में एक रिश्तेदार के घर रुककर, अगली सुबह सोनपुर के लिए निकले। वहीं पहली बार रोला फुआ ने बिजली देखी। पहली बार बल्ब, स्विच, सीलिंग फैन, गोल चौराहा, शहर के कुत्ते—सब देखा।

गाँव के कुत्तों में बाल नहीं होते थे। शहर के कुत्ते खुद नहीं घूम सकते थे। लेकिन क्यूट तो कमाल के थे।

पटना से उन्हें प्यार हो गया। पहली नज़र वाला।

और उन्होंने एक वादा कर लिया—दिल में रख लिया।
एक वादा कर लिया—दिल में रख लिया।
एक वादा कर लिया—दिल में रख लिया।

सोनपुर मेला भी कम धमाल नहीं था। पापा से बनवा लिया—नाचता हुआ पत्ते का आदमी, ड्रम वाला खिलौना, चूड़ियाँ, गुब्बारे, मिट्टी के जानवर… और मिट्टी का हाथी।

और असली हाथी भी खरीदा गया! बच्ची की खुशी का क्या ही कहना—जिसके पापा ने असली हाथी ख़रीद लिया हो!

लेकिन जो सपना उनके दिल में बस गया था, वो हाथी से भी बड़ा था।

समय बीता। हर साल मानसून आया-गया। कागज़ की नाव, कच्चा आम, लाल गूदा वाला अमरूद, मेहंदी की महक—सब में रमी रहीं। फिर वो चौदह की हुईं। अब शादी की बातें शुरू हुईं।

माँ ने जलेबी बनाते हुए कहा, “पापा लड़का देख रहे हैं। तुम्हारी शादी तय होगी।”

उन्हें समझ आ गया—वक्त आ गया है।

वो पापा से बग़ीचे में मिलीं। पापा बैंगन, टमाटर, मूली देख रहे थे।

बोलीं:
“अगर शादी हो, तो पटना वाला लड़का हो।
मैं पटना में रहना चाहती हूँ।
मैं पटना में रहना चाहती हूँ।
मैं पटना में रहना चाहती हूँ।”

और फिर शादी हुई—पटना के नामी मौर परिवार में। बड़ा घर, अच्छा लड़का, बहुत प्यार। वो मोर वाले चाबी के गुच्छे की मालकिन बनीं—सबकी चाबी उन्हीं के पास।

आँगन में बंदर तक उनसे कंघा और आइना चुराने आते थे। वो कहतीं, “बस झुमका मत चुराना।”

उस ज़माने में शादी जल्दी हो जाती थी, पर लड़की अपने मायके में ही रहती थी जब तक पूरी तरह तैयार न हो जाए। इस सिस्टम में एक समझदारी थी—आज भले अजीब लगे, पर तब का सिस्टम बड़ा गहराई वाला था।

मैं जब किशोर था, तो अक्सर माँ के बनाए अचार या मौसमी मिठाइयाँ लेकर रोला फुआ के घर जाता। सफ़र बस 10–15 किलोमीटर का होता, लेकिन मेरे 43cc के मोपेड से लगता 40 किलोमीटर।

वो जैसे ही सुनतीं कि माँ ने कुछ भेजा है, चेहरा खिल उठता। बैठी होतीं अपनी ब्रिटिश-ज़माने की कुर्सी पर, हाथ में पंखा। सीलिंग फैन होता, मगर वो कहतीं—“वो तो मेहमानों के लिए है। गाँव की चीज़ ही असली सुकून देती है।”

मुझे बार-बार कहतीं, “मालती से कहना—इस बार खट–मीठी भेजना भूल गई क्या? आम का मुरब्बा!”

करीब दस साल पहले, रोला फुआ चल बसीं। मैं भारत में था, तो शोक प्रकट करने चला गया।

जैसे ही उनके बरामदे से निकलकर कार की ओर बढ़ा, उनके पालतू तोते की आवाज़ सुनाई दी—धीमी सी मगर तीन बार—

“रुपु थक गया, अब सोने का टाइम है।
रुपु थक गया, अब सोने का टाइम है।
रुपु थक गया, अब सोने का टाइम है।”

रोला फुआ ने अपने तोते का नाम रखा था—रुपु।

मैं मुस्कुराया… और गला रुंध गया।

मैं कार में बैठा, म्यूज़िक नहीं चलाया।

ज़िंदगी खुद एक गीत है।
बस सही हेडफ़ोन हो, तो सुन सकते हो… और महसूस कर सकते हो।

By Krishna Bhaskar

Krishna Bhaskar is a storyteller at heart and a seeker by soul. Born and raised in India before settling in Texas in his early twenties, he embodies a rich blend of cultures. For nearly three decades, Texas has been home—reflected in his love for Tex-Mex, small-town BBQ hunts, and his ever-present western boots.A gifted writer and actor, Krishna’s creative work spans short stories, poems, songs, and screenplays in both English and Hindi. His writing draws from real moments and personal introspection, making his stories deeply intimate yet universally relatable. On stage, he brings the same authenticity and emotional depth, creating an instant sense of connection with his audience.Blending wisdom with warmth, Krishna Bhaskar reminds us that intellect and boots do go darn good together.

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